पर्यावरण एवं विज्ञान >> समय का संक्षिप्त इतिहास समय का संक्षिप्त इतिहासस्टीफेन हॉकिंग
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स्टीफेन हॉकिंग की बहुचर्चित पुस्तक ‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ का हिन्दी रूपान्तरण
Samay Ka Sankshipat Itihas
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘स्टीफेन हॉकिंग की यह पुस्तक विज्ञान-लेखन की दुनिया में अपनी लोकप्रियता के कारण अतिविशिष्ट स्थान रखती है। वर्ष 1998 में अपने प्रकाशन के मात्र दस वर्षो की अवधि में इस पुस्तक में दस लाख से ज्यादा प्रतियाँ बिकी और आज भी जिज्ञासा की दुनिया में यह पुस्तक बदस्तूर अपनी जगह बनाए हुए है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह कहाँ से आया और क्या यह शाश्वत है या किसी ने बाकायदा इसकी रचना की है ? बुद्धिचालित मनुष्य का उद्भव एक सांयोगिक घटना है या फिर मनुष्य के लिए ब्रह्माण्ड की रचना की गई, ये कुछ ऐसा सवाल है जो सदा से हमें विचलित-उत्कंठित करते रहें। यह पुस्तक इन सवालों का उत्तर देने का प्रयास करती है। इसमें आरम्भिक भू-केन्द्रिक ब्रह्माण्डिकियों से लेकर बाद की सूर्य-केन्द्रक ब्रह्माण्डिकियों से होते हुए एक अनन्त ब्रह्माण्ड अथवा अनन्त रूप से विस्तृत अनेक ब्रह्माण्डों तथा कृमि-छिद्रों की परिकल्पनाओं तक की हमारी विकास-यात्रा का संक्षिप्त और सरलतम वर्णन किया गया है।
इस संस्करण में पिछले दशक में ब्रह्माण्डिकी के क्षेत्र में हासिल की गई नई सूचनाओं और नतीजों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। लेखक ने इस प्रत्येक अध्याय को पूर्णतया परिवर्द्धित करते हुए इस संस्करण में प्राक्कथन के साथ-साथ वर्म होल और काल-यात्रा पर एक नितान्त नवीन अध्याय भी सम्मिलित किया है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह कहाँ से आया और क्या यह शाश्वत है या किसी ने बाकायदा इसकी रचना की है ? बुद्धिचालित मनुष्य का उद्भव एक सांयोगिक घटना है या फिर मनुष्य के लिए ब्रह्माण्ड की रचना की गई, ये कुछ ऐसा सवाल है जो सदा से हमें विचलित-उत्कंठित करते रहें। यह पुस्तक इन सवालों का उत्तर देने का प्रयास करती है। इसमें आरम्भिक भू-केन्द्रिक ब्रह्माण्डिकियों से लेकर बाद की सूर्य-केन्द्रक ब्रह्माण्डिकियों से होते हुए एक अनन्त ब्रह्माण्ड अथवा अनन्त रूप से विस्तृत अनेक ब्रह्माण्डों तथा कृमि-छिद्रों की परिकल्पनाओं तक की हमारी विकास-यात्रा का संक्षिप्त और सरलतम वर्णन किया गया है।
इस संस्करण में पिछले दशक में ब्रह्माण्डिकी के क्षेत्र में हासिल की गई नई सूचनाओं और नतीजों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। लेखक ने इस प्रत्येक अध्याय को पूर्णतया परिवर्द्धित करते हुए इस संस्करण में प्राक्कथन के साथ-साथ वर्म होल और काल-यात्रा पर एक नितान्त नवीन अध्याय भी सम्मिलित किया है।
अनुवादक की ओर से
सृष्टि की रचना के प्रयोजन को जानने की उत्कण्ठा अति प्राचीनकाल से मानव-चिन्तन को झकझोरती रही है। इस रहस्य को जानने की जिज्ञासा ने शब्यता के शैशवकाल से ही बौद्धिक विकास के साथ-साथ समस्त दार्शनिक चिन्तन को दिशा-निर्देशित किया है। ब्रह्माण्य की उत्पत्ति किस प्रकार हुई, यह कहाँ से आया, क्या यह सदैव से अस्तित्व में था या इसका कोई रचयिता है, क्या विश्व-पटल पर बुद्धिजीवी मनुष्य का प्रादुर्भाव मात्र एक सांयोगिक घटना है अथवा मनुष्य के लिए ब्रह्माण्ड की रचना की गई, आदि अनेक ऐसे गूढ़ प्रश्न हैं जिनके विवेचन के लिए शास्त्रों की रचना की गई। ऐसा लगता है, अति प्राचीनकाल में भारत के (मंत्रदृष्टा) ऋषि अपनी आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करके ऐसे निष्कर्षों पर पहुँचे जो आधुनिक समय में प्रस्तावित ब्रह्माण्ड के विभिन्न मॉडलों के काफी अनुरूप हैं। यह निश्चय ही एक सुखद आश्चर्य है। भारतीय वाङ्मय में अनेक ऐसे प्रसंग बिखरे पड़े हैं जिनमें एक दोलनकारी ब्रह्माण्ड की कल्पना की गई है।
विज्ञान के विकास के साथ ही ब्रह्माण्ड के विकास की परतें जा रही हैं। अब हम ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से जुड़े कुछ नए गम्भीर प्रश्नों से समाधान ढूँढ़ते हुए सृष्टि की रचना के प्रारम्भिक पलों तक जा पहुँचे हैं जिससे आगे बढ़ने पर विज्ञान के नियम विफल हो जाते हैं तथा हमारी समझ की सीमा निर्धारित हो जाती है।
‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ ब्रह्माण्डिकी के विकास का एक संक्षिप्त दस्तावेज है। यह प्रारम्भिक भू-केन्द्रिक ब्रह्माण्डिकियों से लेकर बाद की सूर्य-केन्द्रिक ब्रह्माण्डिकियों से होते हुए एक अनन्त ब्रह्माण्ड अथवा अनन्त रूप से विस्तृत अनेक ब्रह्माण्डों तथा कृमि-छिद्रों की परिकल्पनाओं तक की हमारी विकास-यात्रा का संक्षिप्त और सरलतम वर्णन है। ब्रह्माण्ड विलक्षणता की स्थिति से प्रारम्भ हुआ या दिक्-काल की कोई सीमा है अथवा नहीं, या पूरी तरह से स्वयंपूर्ण (Self-contained) है तथा अपने से बाहर किसी भी वस्तु के द्वारा प्रभावित नहीं होता तथा इस प्रकार यह पूर्णत: शाश्वत है, आदि ऐसे अनेक विचार हैं जो अपने पक्ष में ठोस प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। परन्तु चाहे यह किसी भी प्रकार से प्रारम्भ हुआ हो, ऐसा क्यों है कि यह उन नियमों तथा सिद्धान्तों से नियन्त्रित है जिन्हें हम समझ सकते हैं ?
जब घटनाएँ किन्हीं नियम सूत्रों से नियन्त्रित तथा प्रभावित होती हैं तो यह यादृच्छिकता को स्थान नहीं रह जाता। लगता है, कोई निश्चिन्त अन्तर्निहित व्यवस्था है जो इस पूरे तन्त्र को सम्बल प्रदान करती है। ईश्वर ने कुछ निश्चित नियमों के अनुसार इस पूरे तन्त्र को विकसित होने दिया तथा वह इन नियमों को तोड़ने के लिए फिर इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करता। परन्तु श्री स्टीफेन हॉकिंग का यह प्रश्न अनुत्तरित रहता है कि यदि यह ब्रह्माण्ड शाश्वत है, इसका न आदि है, न अन्त, तब फिर रचयिता का क्या स्थान ?
परन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथों में यह मीमांसा कुछ इस प्रकार की गई है- ‘अहं ब्रह्माब्रह्मणी। मत्त: प्रकृति-पुरुषात्कं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।.....अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्माणी वेदितव्ये। अहं पंचभूतान्यपंचभूतानि। अहमखिलं जगत्।’ (मैं ब्रह्मा स्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ- श्री देव्यथर्वशीर्षम्)
यह पुस्तक ब्रह्माण्डिकी व खगोलशास्त्र के जिज्ञासु विद्यार्थियों के लिए निश्चित रूप से एक अनमोल निधि है।
इस पुस्तक के हिन्दी रूपान्तर के लिए मैं अपने गुरुजी श्री वीरेश कुमार त्यागी जी (सेवानिवृत्त गणित-प्रवक्ता) का आभारी हूँ, जिन्होंने निरन्तर मुझे दिशा प्रदान की और मेरे उत्साह को बढ़ाया। इस कार्य को सम्पन्न करने में मेरे मित्र एवं सहयोगी श्री शैलेन्द्र पुष्कर तथा शिष्य श्री पंकज पुष्कर से भरपूर सहयोग मिला। मैं श्री बी.डी. शर्मा जी का विशेष रूप से ऋणी हूँ जिनके अपार स्नेह एवं आशीर्वाद के बिना यह कार्य सम्भव नहीं था।
विज्ञान के विकास के साथ ही ब्रह्माण्ड के विकास की परतें जा रही हैं। अब हम ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से जुड़े कुछ नए गम्भीर प्रश्नों से समाधान ढूँढ़ते हुए सृष्टि की रचना के प्रारम्भिक पलों तक जा पहुँचे हैं जिससे आगे बढ़ने पर विज्ञान के नियम विफल हो जाते हैं तथा हमारी समझ की सीमा निर्धारित हो जाती है।
‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ ब्रह्माण्डिकी के विकास का एक संक्षिप्त दस्तावेज है। यह प्रारम्भिक भू-केन्द्रिक ब्रह्माण्डिकियों से लेकर बाद की सूर्य-केन्द्रिक ब्रह्माण्डिकियों से होते हुए एक अनन्त ब्रह्माण्ड अथवा अनन्त रूप से विस्तृत अनेक ब्रह्माण्डों तथा कृमि-छिद्रों की परिकल्पनाओं तक की हमारी विकास-यात्रा का संक्षिप्त और सरलतम वर्णन है। ब्रह्माण्ड विलक्षणता की स्थिति से प्रारम्भ हुआ या दिक्-काल की कोई सीमा है अथवा नहीं, या पूरी तरह से स्वयंपूर्ण (Self-contained) है तथा अपने से बाहर किसी भी वस्तु के द्वारा प्रभावित नहीं होता तथा इस प्रकार यह पूर्णत: शाश्वत है, आदि ऐसे अनेक विचार हैं जो अपने पक्ष में ठोस प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। परन्तु चाहे यह किसी भी प्रकार से प्रारम्भ हुआ हो, ऐसा क्यों है कि यह उन नियमों तथा सिद्धान्तों से नियन्त्रित है जिन्हें हम समझ सकते हैं ?
जब घटनाएँ किन्हीं नियम सूत्रों से नियन्त्रित तथा प्रभावित होती हैं तो यह यादृच्छिकता को स्थान नहीं रह जाता। लगता है, कोई निश्चिन्त अन्तर्निहित व्यवस्था है जो इस पूरे तन्त्र को सम्बल प्रदान करती है। ईश्वर ने कुछ निश्चित नियमों के अनुसार इस पूरे तन्त्र को विकसित होने दिया तथा वह इन नियमों को तोड़ने के लिए फिर इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करता। परन्तु श्री स्टीफेन हॉकिंग का यह प्रश्न अनुत्तरित रहता है कि यदि यह ब्रह्माण्ड शाश्वत है, इसका न आदि है, न अन्त, तब फिर रचयिता का क्या स्थान ?
परन्तु हमारे प्राचीन ग्रंथों में यह मीमांसा कुछ इस प्रकार की गई है- ‘अहं ब्रह्माब्रह्मणी। मत्त: प्रकृति-पुरुषात्कं जगत्। शून्यं चाशून्यं च।.....अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्माणी वेदितव्ये। अहं पंचभूतान्यपंचभूतानि। अहमखिलं जगत्।’ (मैं ब्रह्मा स्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ- श्री देव्यथर्वशीर्षम्)
यह पुस्तक ब्रह्माण्डिकी व खगोलशास्त्र के जिज्ञासु विद्यार्थियों के लिए निश्चित रूप से एक अनमोल निधि है।
इस पुस्तक के हिन्दी रूपान्तर के लिए मैं अपने गुरुजी श्री वीरेश कुमार त्यागी जी (सेवानिवृत्त गणित-प्रवक्ता) का आभारी हूँ, जिन्होंने निरन्तर मुझे दिशा प्रदान की और मेरे उत्साह को बढ़ाया। इस कार्य को सम्पन्न करने में मेरे मित्र एवं सहयोगी श्री शैलेन्द्र पुष्कर तथा शिष्य श्री पंकज पुष्कर से भरपूर सहयोग मिला। मैं श्री बी.डी. शर्मा जी का विशेष रूप से ऋणी हूँ जिनके अपार स्नेह एवं आशीर्वाद के बिना यह कार्य सम्भव नहीं था।
अश्वपति सक्सेना
प्राक्कथन
‘ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम’ के मूल संस्करण के लिए मैंने प्राक्कथन नहीं लिखा था। यह कार्य कार्ल सागां द्वारा किया गया था। इसके स्थान पर मैंने ‘आभार प्रदर्शन’ शीर्षक से एक छोटा सा लेख दिया था जिसमें मुझे प्रत्येक के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का परामर्श दिया गया था। बहरहाल, कुछ प्रतिष्ठान जिन्होंने मुझे अवलम्ब दिया था, अपना उल्लेख किये जाने पर बहुत अधिक प्रसन्न नहीं थे, क्योंकि इससे प्रार्थियों में बहुत वृद्धि हो गई थी।
मैं नहीं समझता कि कोई भी, मेरे प्रकाशक, मेरे अभिकर्ता अथवा मैं स्वयं यह अपेक्षा करते थे कि यह पुस्तक इतना अधिक प्रभावशाली प्रदर्शन कर पाएगी जितना कि इसने वास्तव में किया। यह लन्दन के ‘सन्डे टाइम्स’ के 237 सप्ताहों की सर्वोच्च बिक्रीवाली पुस्तकों की सूची में अंकित थी- किसी भी दूसरी पुस्तक की अपेक्षा अधिक ब्रिकीवाली (स्पष्टत: बाइबिल व शेक्सपीयर की कृतियों की गणना इसमें सम्मिलित नहीं है)। इस पुस्तक का लगभग 40 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है तथा विश्व के हर 750 स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों के लिए लगभग एक प्रति के हिसाब से यह बिक चुकी है। जैसा कि माइक्रोसॉफ्ट (मेरे एक पूर्ववर्ती पोस्ट-डॉक) न नाथन मिहिरवोल्ड ने टिप्पणी की थी : मैडोना ने कामुकता (सेक्स) पर जितनी पुस्तकों की बिक्री है, मैंने भौतिकी पर उसकी अपेक्षा कहीं अधिक पुस्तकों की बिक्री की है।
‘ए ब्रीफ़ हिस्ट्री.....’ की सफलता यह सकारात्मक संकेत देती है कि इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों में लोगों को व्यापक अभिरुचि है कि : हम कहाँ से आए ? और ब्रह्माण्ड का स्वरूप ऐसा ही क्यों है ?
मैंने इस सुअवसर का उपयोग इस पुस्तक को परिष्कृत बनाने के लिए तथा इसके प्रथम प्रकाशन (अप्रैल फूल दिवस 1988) से अब तक प्राप्त सैद्धान्तिक और प्रेक्षणात्मक निष्कर्षों को इस नए संस्करण में सम्मिलित करने के लिए किया है। मैंने वर्म होल तथा काल यात्रा पर एक नया अध्याय जोड़ा है। आइन्स्टाइन का आपेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त यह सम्भावना प्रस्तुत करता हुआ प्रतीत होता है कि हम दिक्-काल के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़नेवाली छोटी-छोटी नलिकाओं जैसे कृमि-छिद्रों या वर्म होलों का सृजन भी कर सकते हैं व उनका अनुरक्षण भी कर सकते हैं। यदि ऐसा हो सका, तब हम मन्दाकिनी के चारों ओर तीव्र गति से यात्रा करने के लिए या काल की विपरीत दिशा में यात्रा करने के लिए शायद उनका उपयोग करने में समर्थ हो सकेंगे। निस्संदेह हमने भविष्य में से किसी को नहीं देखा है (या क्या हमने देखा है ?) परन्तु मैंने इसके एक सम्भावित स्पष्टीकरण का विवेचन किया है।
मैंने उस प्रगति का भी वर्णन किया है जो भौतिकी के स्पष्टत: विभिन्न सिद्धान्तों के मध्य अनुरूपता या ‘द्वैतता’ को खोजने में हाल ही के समय में की गई है। ये अनुरूपताएँ इस तथ्य का एक प्रबल संकेत हैं कि भौतिकी का एक पूर्ण एकीकृत सिद्धान्त है, परन्तु वे यह सुझाती हैं कि किसी एक ही आधारभूत सूत्र में इस सिद्धान्त को मूर्त रूप देना शायद संभव नहीं हो सकता। इसके स्थान पर हमें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अन्तर्निहित सिद्धान्त के भिन्न-भिन्न प्रतिबिम्बों का प्रयोग करना पड़ सकता है। यह संभवत: कुछ इस प्रकार हो सकता है जैसा कि हम किसी एक ही मानचित्र पर पृथ्वी के सम्पूर्ण पृष्ठतल का चित्रण करने में असमर्थ रहें तथा हमें विभिन्न क्षेत्रों के लिए विभिन्न मानचित्रों का प्रयोग करने के लिए विवश होना पड़े। यह विज्ञन के नियमों के एकीकरण संबंधी हमारे विचारों में एक आमूल परिवर्तन होगा, परन्तु यह इस सार्वाधिक महत्त्वपूर्ण बिन्दु में कोई परिवर्तन नहीं कर पाएगा कि ब्रह्माण्ड ऐसे तर्कसंगत नियमों के समुच्चय से नियंत्रित होता है जिन्हें हम खोज भी सकते हैं तथा समझ भी सकते हैं।
प्रेक्षणात्मक पक्ष में, अब तक अन्तरिक्ष पृष्ठभूमि अन्वेषक उपग्रह (COBE) तथा दूसरे अन्य सहयोगियों द्वारा ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म तरंग पृष्ठभूमि विकिरण में असमानताओं (फ्लक्चुएशन) का मापन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रगति रही है। ये असमानताएँ सृष्टि की अंगुलि छाप (फिंगर प्रिंट्स) जैसे हैं, एक निर्बाध एवं एक समान प्रारम्भिक ब्रह्माण्ड में बहुत छोटी सी अनियमितताएँ जो बाद में मन्दाकिनियों, तारों तथा उन सारी संचरचनाओं में विकसित हो गई जिन्हें हम अपने चारों ओर देखते हैं। उनका स्वरूप इस प्रस्ताव के पूर्वनुमानों के अनुरूप है कि काल्पनिक समय दिशा में ब्रह्माण्ड की कोई सीमा या किनारा नहीं है; परन्तु पृष्ठभूमि में विकिरण-असमानताओं के अन्य सम्भावित स्पष्टीकरणों से इस प्रस्ताव का विभेद करने के लिए अभी और प्रेक्षण करने आवश्यक होंगे। बहरहाल थोड़े से ही वर्षों में, हम सम्भवत: यह जान लेंगे कि क्या यह तथ्य विश्वसनीय है कि हम एक ऐसे ब्रह्माण्ड में रहते हैं जो पूरी तरह से स्वयंपूर्ण है तथा जिसका न आदि है, न अन्त।
मैं नहीं समझता कि कोई भी, मेरे प्रकाशक, मेरे अभिकर्ता अथवा मैं स्वयं यह अपेक्षा करते थे कि यह पुस्तक इतना अधिक प्रभावशाली प्रदर्शन कर पाएगी जितना कि इसने वास्तव में किया। यह लन्दन के ‘सन्डे टाइम्स’ के 237 सप्ताहों की सर्वोच्च बिक्रीवाली पुस्तकों की सूची में अंकित थी- किसी भी दूसरी पुस्तक की अपेक्षा अधिक ब्रिकीवाली (स्पष्टत: बाइबिल व शेक्सपीयर की कृतियों की गणना इसमें सम्मिलित नहीं है)। इस पुस्तक का लगभग 40 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है तथा विश्व के हर 750 स्त्री-पुरुषों तथा बच्चों के लिए लगभग एक प्रति के हिसाब से यह बिक चुकी है। जैसा कि माइक्रोसॉफ्ट (मेरे एक पूर्ववर्ती पोस्ट-डॉक) न नाथन मिहिरवोल्ड ने टिप्पणी की थी : मैडोना ने कामुकता (सेक्स) पर जितनी पुस्तकों की बिक्री है, मैंने भौतिकी पर उसकी अपेक्षा कहीं अधिक पुस्तकों की बिक्री की है।
‘ए ब्रीफ़ हिस्ट्री.....’ की सफलता यह सकारात्मक संकेत देती है कि इन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों में लोगों को व्यापक अभिरुचि है कि : हम कहाँ से आए ? और ब्रह्माण्ड का स्वरूप ऐसा ही क्यों है ?
मैंने इस सुअवसर का उपयोग इस पुस्तक को परिष्कृत बनाने के लिए तथा इसके प्रथम प्रकाशन (अप्रैल फूल दिवस 1988) से अब तक प्राप्त सैद्धान्तिक और प्रेक्षणात्मक निष्कर्षों को इस नए संस्करण में सम्मिलित करने के लिए किया है। मैंने वर्म होल तथा काल यात्रा पर एक नया अध्याय जोड़ा है। आइन्स्टाइन का आपेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त यह सम्भावना प्रस्तुत करता हुआ प्रतीत होता है कि हम दिक्-काल के विभिन्न क्षेत्रों को जोड़नेवाली छोटी-छोटी नलिकाओं जैसे कृमि-छिद्रों या वर्म होलों का सृजन भी कर सकते हैं व उनका अनुरक्षण भी कर सकते हैं। यदि ऐसा हो सका, तब हम मन्दाकिनी के चारों ओर तीव्र गति से यात्रा करने के लिए या काल की विपरीत दिशा में यात्रा करने के लिए शायद उनका उपयोग करने में समर्थ हो सकेंगे। निस्संदेह हमने भविष्य में से किसी को नहीं देखा है (या क्या हमने देखा है ?) परन्तु मैंने इसके एक सम्भावित स्पष्टीकरण का विवेचन किया है।
मैंने उस प्रगति का भी वर्णन किया है जो भौतिकी के स्पष्टत: विभिन्न सिद्धान्तों के मध्य अनुरूपता या ‘द्वैतता’ को खोजने में हाल ही के समय में की गई है। ये अनुरूपताएँ इस तथ्य का एक प्रबल संकेत हैं कि भौतिकी का एक पूर्ण एकीकृत सिद्धान्त है, परन्तु वे यह सुझाती हैं कि किसी एक ही आधारभूत सूत्र में इस सिद्धान्त को मूर्त रूप देना शायद संभव नहीं हो सकता। इसके स्थान पर हमें भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में अन्तर्निहित सिद्धान्त के भिन्न-भिन्न प्रतिबिम्बों का प्रयोग करना पड़ सकता है। यह संभवत: कुछ इस प्रकार हो सकता है जैसा कि हम किसी एक ही मानचित्र पर पृथ्वी के सम्पूर्ण पृष्ठतल का चित्रण करने में असमर्थ रहें तथा हमें विभिन्न क्षेत्रों के लिए विभिन्न मानचित्रों का प्रयोग करने के लिए विवश होना पड़े। यह विज्ञन के नियमों के एकीकरण संबंधी हमारे विचारों में एक आमूल परिवर्तन होगा, परन्तु यह इस सार्वाधिक महत्त्वपूर्ण बिन्दु में कोई परिवर्तन नहीं कर पाएगा कि ब्रह्माण्ड ऐसे तर्कसंगत नियमों के समुच्चय से नियंत्रित होता है जिन्हें हम खोज भी सकते हैं तथा समझ भी सकते हैं।
प्रेक्षणात्मक पक्ष में, अब तक अन्तरिक्ष पृष्ठभूमि अन्वेषक उपग्रह (COBE) तथा दूसरे अन्य सहयोगियों द्वारा ब्रह्माण्डीय सूक्ष्म तरंग पृष्ठभूमि विकिरण में असमानताओं (फ्लक्चुएशन) का मापन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रगति रही है। ये असमानताएँ सृष्टि की अंगुलि छाप (फिंगर प्रिंट्स) जैसे हैं, एक निर्बाध एवं एक समान प्रारम्भिक ब्रह्माण्ड में बहुत छोटी सी अनियमितताएँ जो बाद में मन्दाकिनियों, तारों तथा उन सारी संचरचनाओं में विकसित हो गई जिन्हें हम अपने चारों ओर देखते हैं। उनका स्वरूप इस प्रस्ताव के पूर्वनुमानों के अनुरूप है कि काल्पनिक समय दिशा में ब्रह्माण्ड की कोई सीमा या किनारा नहीं है; परन्तु पृष्ठभूमि में विकिरण-असमानताओं के अन्य सम्भावित स्पष्टीकरणों से इस प्रस्ताव का विभेद करने के लिए अभी और प्रेक्षण करने आवश्यक होंगे। बहरहाल थोड़े से ही वर्षों में, हम सम्भवत: यह जान लेंगे कि क्या यह तथ्य विश्वसनीय है कि हम एक ऐसे ब्रह्माण्ड में रहते हैं जो पूरी तरह से स्वयंपूर्ण है तथा जिसका न आदि है, न अन्त।
स्टीफेन हॉकिंग
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